काम ऊर्जा अगर नीचे को बह गयी तो सेक्सुअल रिलीस होगा और यही काम ऊर्जा को अगर ध्यान के द्वारा बदल दिया तो वो तुम्हारे ध्यान को गहरा कर देगी। यह एक शक्ति है। इसे इस्तेमाल में कैसे लाया जाए; यह आप पर निर्भर करता है । जो लोग अपनी इस काम ऊर्जा का सदुपयोग करना नहीं जानते, और उससे लड़ते रहते हैं, वे बड़े ग़मगीन और दुखी आत्माएँ रहती हैं। इसे बदलना सीखो। पर इसे बुरा मत कहो। इसको दबाओ नहीं, इसे समझो। इसी काम ऊर्जा से एक बच्चे का जन्म हो जाता है। ये क्या कोई छोटी बात है? अगर आपको लगता है कि आपको सिर्फ़ इससे बाहर आने की ज़रूरत है, तो उसके अनुभव में जाइए। और उस अनुभव के लाइसेन्स का नाम ही तो शादी है। पर फिर ये भी सच है कि सिर्फ़ काम ऊर्जा को समझने या काम ऊर्जा कैसे कार्य करती है, इतना भर ज्ञान लेने के लिए, आप विवाह करो, अनुभव तो मिल जाएगा, पर साथ में फिर बच्चे भी मिलेंगे, ज़िम्मेदारी भी मिलेगी, और काम भी मिलेगा। फिर यह काम, ऐसे काम को जन्म देगा कि ज़िंदगी भर चक्कर में फँस कर रह जाओगे । अगर मैं वैज्ञानिक ढंग से कहूँ कि चौदह साल की आयु में किसी के भीतर सेक्स की इच्छा जगती है, तो जो ग्रंथियों का सिस्टम है, उस लिहाज से 45 साल की उम्र तक आते आते ये ख़त्म भी हो जाना चाहिए। पर क्या 45 साल से ऊपर के जितने स्त्री और पुरुष हैं, उनके अंदर काम इच्छा ख़त्म हो गयी? नहीं हुई। इसका मतलब सिस्टम में कुछ तो गड़बड़ है। इसका कारण शारीरिक हो सकता है और इससे भी ज़्यादा आपके दिमाग़ की गड़बड़ है। इसका अर्थ कि दिमाग़ ये अंतर नहीं देख पा रहा है कि क्षणिक सुख में और सनातन सुख में क्या अंतर है। उम्र से बड़े होते जाते है, पर अकल वही की वही रह जाती है। इसीलिए दुनिया में सबसे पुराना व्यवसाय कोई है तो वो वैश्यागिरी है।
सेक्स का धंधा सबसे पुराना धंधा है। और सबसे ज़्यादा चलने वाला भी यही धंधा है। क्योंकि ये मनुष्य की एक ऐसी ज़रूरत है जिसको इंसान छोड़ नहीं पाता है, दबा नहीं पाता है। उसको उसमें जाना ही पड़ता है। जो बिना सोचे समझे इसमें जा रहे हैं, उनमें और पशु में कोई अंतर नहीं है।
अगर मैं वैज्ञानिक ढंग से कहूँ कि चौदह साल की आयु में
किसी के भीतर सेक्स की इच्छा जगती है,
तो जो ग्रंथियों का सिस्टम है,
उस लिहाज से 45 साल की उम्र तक आते आते
ये ख़त्म भी हो जाना चाहिए। पर क्या
45 साल से ऊपर के जितने स्त्री और पुरुष हैं,
उनके अंदर काम इच्छा ख़त्म हो गयी?
किसी के भीतर सेक्स की इच्छा जगती है,
तो जो ग्रंथियों का सिस्टम है,
उस लिहाज से 45 साल की उम्र तक आते आते
ये ख़त्म भी हो जाना चाहिए। पर क्या
45 साल से ऊपर के जितने स्त्री और पुरुष हैं,
उनके अंदर काम इच्छा ख़त्म हो गयी?
दैहिक आकर्षण ख़त्म हो जाता है।
गाँधीजी अपनी पत्नी कस्तूरबा को ‘बा’ कहते थे। ‘बा’ गुजराती में माँ को कहते हैं। उनका नाम कस्तूर था, गाँधी ने साथ में ‘बा’ जोड़ दिया। क्योंकि एक समय तक गाँधी बहुत कामुक व्यक्ति था। जिस रात उसके पिता की मृत्यु हो रही थी, उस समय पर भी गाँधी अपनी पत्नी के साथ अपने शयनकक्ष में थे और उसी समय उनके पिता के प्राण छूट गये। उनके दिल को बहुत धक्का लगा कि मैं पिता को रोगी देख कर भी अपने मन के इस वेग में बह गया। उस दिन से उन्होने अपनी काम-ऊर्जा पर काम करना शुरु कर दिया। फिर एक दिन वह भी आ गया, जब उनकी पत्नी उनके पास होते हुए भी उसे पत्नी नहीं, उसमें माँ का स्वरूप देखने लग गये और कस्तूरबा बुलाने लग गये। पहली बार जब उन्होने उसे ‘बा’ बुलाया तो वह हैरान होकर कहती कि ‘ यह आप क्या बोल रहे हो, मैं तो आपकी पत्नी हूँ, माँ नहीं।’ गाँधीजी कहते हैं कि आज से तू मेरी माता ही है। और आज के बाद से तेरे मेरे बीच में पति पत्नी जैसा कोई भी व्यवहार नहीं होगा। अब मैं उस चीज़ से बाहर आ चुका हूँ।’ गाँधी जी निरंतर अपने आप को चैलेंज करते रहे, परखते रहे, देखते रहे। बस, अंतर इतना है कि उनकी सोच में यह बात बहुत तीव्र थी कि ‘काम एक बुरी चीज़ है, इसको हटाना है।’ इसलिए तो गाँधी एक राजनेता थे, ऋषि नहीं। पर जो ऋषि थे उन्होने काम को बुरा नहीं समझा। ग़लत नहीं कहा। काम को भी राम तक पहुँचने की सीढ़ी कहा। जब तक तुम इससे निकलोगे नहीं, तब तक तुम राम से कैसे जुडोगे?
कथा, ज्ञान जो तुम बैठ कर सुनते रहते हो, इससे तुम्हारी ज़िंदगी नहीं बदल जाएगी। अगर तुम्हें ऐसा लगता है तो तुम ग़लतफहमी में हो। जो समझदार और विवेकी हैं, जिसका विवेक इतना ऊँचा उठ जाए, उसको फिर अनुभव की ज़रूरत नहीं रह जाती, कि वह सेक्स से गुज़रेगा, तो उसको पता चलेगा कि इससे बाहर कैसे आएँ। अगर उसका बौद्धिक स्तर, ज्ञान का स्तर उँचा है, तो वो उसको अपनी अकल से, बिना अनुभव में गये ही समझ जाता है। पर इस स्तर के लोग बहुत कम होते हैं। इसीलिए गुरु नानक, याज्ञवल्क्य जैसे ऋषियों ने कहा कि आपको गृहस्थ आश्रम में जाना ही चहिये। जाए बगैर कैसे समझोगे कि यह क्या है? केवल बातों से? बुद्ध भी सन्यासी होने से पहले गृहस्थ थे। उन्होने गृहस्थी को नकारा नहीं। उसे स्वीकार किया। पर उन्होंने गृहस्थ जीवन को भी अपने अध्यात्मिक जीवन की एक सीढ़ी बना दिया। इसीलिए काम को आप एक सीढ़ी बनाइए। काम ऊर्जा को आप अपना दुश्मन मत बनाइए। और जो तुम कर रहे हो, वह दुश्मनी ही कर रहे हो, लड़ रहे हो, लड़ रहे हो। अगर काम गोबर है तो उसको विवेक, समझ और ध्यान के साथ बदलिए, तो यही खाद बन जाएगी और जीवन में फूल खिला देगी। लड़ो मत, जागो, समझो।
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