Monday 3 December 2012

नारी वक्ष का यौनाकर्षण

नारी वक्ष का  यौनाकर्षण 
नारी वक्ष की दो रोल हैं- एक तो शिशु का पोषण (दुग्धपान) तथा यौनाकर्षण। किन्तु व्यवहारविदों की राय में नारी स्तनों की यौनाकर्षण वाली भूमिका ही ज्यादा अहम है। समूचे नर वानर समुदाय (प्राइमेट्स) में मानव मादा ही इतने उभरे अर्द्धगोलाकार मांसल स्तनों की स्वामिनी है। इससे यह स्पष्ट है कि मानव प्रजाति में मादा के स्तनों की मात्र शिशु पोषण वाली भूमिका ही नहीं है, जैसा कि वह नर-वानर वर्ग के कितने ही अन्य सदस्यों-चिम्पान्जी गोरिल्ला, ओरंगऊटान आदि वनमानुषों में हैं।

यह गौर तलब है कि वनमानुषों की मादाओं का स्तर अपेक्षाकृत बहुत पिचका और बिना उभार लिए होता है। नारी स्तनों की सबसे अहम भूमिका दरअसल यौनाकर्षण (सेक्सुअल सिगनलिंग) ही है। व्यवहार विज्ञानियों ने नारी वक्ष की यौनाकर्षण वाली भूमिका की एक रोचक व्याख्या प्रस्तुत की है। उनका कहना है कि नर वानर कुल के तमाम दूसरे सदस्यों में मादाओं के नितम्ब प्रणय काल के दौरान तीव्र यौनाकर्षण की भूमिका निभाते हैं - उनके रंग आकार में सहसा ही तीव्र परिवर्तन हो उठता है। उनके नर साथी इन नितम्बों के प्रति सहज ही आकर्षित हो उठते हैं। यह तो रही चौपायों की बात किन्तु मानव तो चौपाया रहा नहीं।
 विकास क्रम में कोई करोड़ वर्ष पहले ही वह दोपाया बन बैठा-दो पैरों पर वह सीधा खड़ा होकर तनकर चलने लगा। वैसे तो और उसके पृष्ठभाग में नितम्ब अपने कुल के अन्य सदस्यों की ही भा¡ति अपनी यौनकर्षण वाली भूमिका का परित्याग नहीं कर पाये हैं- 

मानव के ज्यादातर कार्य व्यापार आमने सामने से ही होने लगे, और नितम्ब पीछे की ओर चले गये। अब जरूरत आगे, सामने की ओर ही वैकल्पिक यौनाकर्षक `नितम्बों´ की थी और यह भूमिका ग्रहण की नारी स्तनों ने। 

नारी के वक्ष दरअसल उसी आदि यौन संकेत का ही बखूबी सम्प्रेषण करते हैं - सेक्सुअल नितम्बों का भ्रम बनाये रखते हैं, मगर सामने से मानव मादा के स्तनों की यह नयी यौन भूमिका कुछ ऐसी परवान चढ़ी कि उसके मूल जैवीय कार्य यानी शिशु को स्तनपान कराने में मुश्किलें आने लगीं।


अपने उभरे हुए गुम्बदकार स्वरूप में नारी के स्तन शिशुओं का मुंह ढ़क लेते हैं, स्तनाग्र अपेक्षाकृत इतने छोटे होते हैं कि शिशु उन्हें ठीक से पकड़ नहीं पाता। उसकी नाक स्तन से ढक जाती है और वह सांस भी ठीक से नहीं ले पाता। प्राइमेट कुल के अन्य सदस्यों के शिशुओं को यह सब जहमत नहीं झेलनी पड़ती। क्योंकि उनकी मा¡ओ के स्तन छोटे पतले और पिचके से होते हैं और चूचक लम्बे, जिन्हें शिशु आराम से मु¡ह में लेकर दुग्ध पान करते हैं। 
 नारी के पूरे जीवन में स्तनों की विकास यात्रा सात चरणों में पूरी होती है। जिनमें बाल्यावस्था के `चूचुक स्तन´, सुकुमारी षोडशी के उन्नत शंकुरूपी स्तन, नवयौवना के स्थिर उभरे स्तन तथा मातृत्व और प्रौढ़ा के पूर्ण विकसित, अर्द्धगोलाकार - गुम्बद रूपी स्तन और वृद्धावस्था के सिकुड़े स्तन की अवस्थाए¡ प्रमुख हैं।
मानव की `आदर्श भौतिक उम्र´ 25 वर्ष की मानी गयी है। इस अवस्था तक पहुंचते -पहुंचते समस्त शरीरिक विकास पूर्णता तक पहुँच चुका होता है। अत: इस उम्र तक नारी स्तन का विकास अपने उत्कर्ष पर जा पहुंचता है और भरपूर यौनाकर्षण की क्षमता मिल जाती है। ठीक इसके पश्चात् ही मातृत्व का बोझ नारी स्तन की ढ़लान यात्रा को आरम्भ करा देता है और वे अधोवक्षगामी होने लगती है।


जैवविदों के अध्ययन के मुताबिक पतली तन्वंगी नायिका के स्तन विकास की यात्रा धीमी होती है। जबकि हृष्ट-पुष्ट (बक्जम ब्यूटी) नायिका के स्तनों का विकास तीव्र गति से होता है। अब तो सौन्दर्य शल्य चिकित्सा (कास्मेटिक सर्जरी) के जरिये प्रौढ़ा के भी स्तनों में नवयौवना के स्तनों सा उभार ला पाना सम्भव हो गया है। विभिन्न तरह के वस्त्राभूषणों पहनावों के जरिये किसी भी उम्र की नारी अपने उसी ``नवयौवना´´ काल के स्तनों की ही प्रतीति कराती है। 




परम्परावादियों की कोप दृष्टि हमेशा नारी स्तनों पर रही है। विश्व की कई संस्कृतियों में सामाजिक नियमों के जरिये नारी स्तनों को ढ़कने छिपाने के कड़े प्रतिबन्ध जारी किये जाते रहे हैं। ऐसी कंचुकियों/चोलियों के पहनाने पर विशेष बल दिया गया जिनसे नारी स्तनों का उभार प्रदर्शित न होता हो .सत्रहवी शताब्दी की स्पेनी नवयौवनाओं के स्तनों को सीसे की प्लेटों से दबाकर रखने का क्रूरता भरा रिवाज था, जिससे वे अपना कुदरती स्वरूप न पा सकें यानी बहुत पहले ही नारी स्तनों की यौन भूमिका जग जाहिर हो चुकी थी।
 नारी स्तन की कुदरती अर्द्धगोलाकार स्वरूप की नकल कितने ही चित्रकार, छायाकार अपनी ``रचनाओ´´ में करके उनको सौन्दर्यबोध की नित नूतन परिभाषाए¡ प्रदान करते हैं। न्यूड मैगजीन के मध्यवर्ती पृष्ठों पर नारी स्तनों की कामोद्दीपकता वाली छवि के पाश्र्व में एक छायाकार को बड़ी मेहनत मुशककत करनी पड़ती है। उसे अपने सही मॉडल के तलाश में कम पापड़ नहीं बेलने पड़ते .
 नारी स्तनों को उनके सर्वोत्कृष्ट कामोद्दीपक स्वरूप में दर्शाने के लिए एक छायाकार को एक उस षोडशी की खोज होती है, जिसके स्तन पूरी तरह विकसित हो चुके हों-अपने अर्द्धगोलाकार रूप की चरमावस्था में पहु¡च चुके हों किन्तु अभी भी उनकी `स्थिरता´ बनी हुई हो- यह विरला संयोग सहज सुलभ नहीं होता। 
 हम यही जानते हैं कि मानव मादा के बस दो ही स्तन होते हैं, पर यह सच नहीं है, हकीकत यह है कि प्रत्येक दो तीन हज़ार महिलाओं में से एक को दो से अधिक स्तन होते हैं। इसमें कुछ भी अनुचित नहीं है- ऐसी घटना हमें अपने उस जैवीय अतीत की याद दिलाती है, जब हमारे आदि पशु पूर्वजों की मादायें एक वार में एक से अधिक बच्चे जनती थीं-एक साथ कई बच्चों का गुजर बसर बस जोड़ी भर स्तनों से कहा¡ होने वाला था। 

किन्तु कालान्तर में मानव मादा के आम तौर पर एक शिशु के प्रसव या अपवाद स्वरूप जुड़वे शिशुओं के जन्म के साथ ही स्तनों की संख्या दो पर ही आकर स्थिर हुई होगी। किन्तु अभी भी कुछ नारिया¡ दो से अधिक स्तनों की स्वामिनी होकर हमें अपने जैवीय इतिहास पुराण की याद दिला देते हैं।



रोमन सम्राट एलेक्जेण्डर की मा¡ को कई स्तन थे, जिसके चलते उनका नाम जूलिया मेमिया पड़ गया था। हेनरी अष्टम की अभागी पत्नी एन्नजोलिन के तीन स्तन थे। इस ``अपशकुन´´ के चलते बेचारी को अपनी जान गवानी पड़ी थी अतिरिक्त स्तनों वाली नारी को आज भी कई यूरोपीय देशों में अभिशप्त माना जाता है एवं उन्हें चुड़ैलों का सा दरजा प्राप्त है।

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