Thursday 29 November 2012

उत्‍तेजना कम होने पर भी स्‍त्री में संभोग की इच्‍छा रहती है जीवित

 स्‍त्री दो भावनाओं के बीच पिसती रहती है। वह ऐसे आलिंगन में जकड़ जाना चाहती है, जिसमें कांपती रहे, किंतु व अपने साथ बल प्रयोग पसंद नहीं करती। शारीरिक मिलन में स्‍त्री संभव सीमा तक पुरुष के साथ सामंजस्‍य चाहती है।



कामोद्वेग की अवहेलना करने पर भी रति आनंद
पुरुष स्‍त्री का 'ठंडापन' हमेशा नापसंद करता है। कभी-कभी परिस्थितियां युवती को बाध्‍य कर देती है कि वह ऐसे पुरुष के सम्‍मुख भी समर्पण कर दे जो उसमें काम भावना तो उत्‍पन्‍न कर देता है पर न तो वह उसकी ओर देखना चाहती है और न ही वह  उसके चूमने पर पलट कर उसे चूम सकती है।

यह ठीक-ठाक नहीं देखा गया है कि स्‍त्री  की इच्‍छा के साथ-साथ जो विरोधी भाव रहता है उसमें केवल पुरुष की आक्रमणकारी प्रकृति के प्रति भय की भावना है या घोर निराशा का भाव। स्‍त्री में स्‍वत: उठने वाले कामोद्वेग की अवहेलना करने पर भी रति आनंद मिल सकता है। पुरुष को देखने और स्‍पर्श करने से उसे एक विशेष आनंद मिलता है। इस आनंद के विशेष आधार भी होते हैं। इन क्रियाओं से उसे विशेष काम सुख मिलता है।

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यौन अंग उत्‍पन्‍न करता रहता है शारीरिक बेचैनी
निष्क्रिय काम भावना के लक्षण भी बड़े अस्‍पष्‍ट होते हैं। रेशम व मखमल के स्‍पर्श से स्‍त्री के शरीर में हर्ष से रोमांच भी हो सकता है और भय से कंपन भी। अस्‍पष्‍टता व परस्‍पर विरोधी परिस्थितियों का सृजन एक कुमारी के लिए केवल इसलिए ही होता है कि उसकी स्थिति भी बड़ी ही विरोधात्‍मक रहती है। 

जिस अंग में परिवर्तन होता है वह  वह तो मानो 'सील' में बंद रहता है। उसके सारे शरीर में एक बेचैनी और गरमाहट केवल उस स्‍थान की उपस्थिति के कारण रहती है जिसके माध्‍यम से संभोग क्रिया होती है। कुमारी कन्‍या के शरीर में कोई भी अंग ऐसा नहीं होता, जो उसकी काम इच्‍छा पूरी करने में सहायता दे।

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स्‍त्री के रति भाव का सूचक
स्‍त्री की निष्क्रियता नितांत जड़ता नहीं, उसमें उत्‍तेजना जाग्रत करने के लिए कुछ चीजें उसी के पास है। उसके शरीर में कामोत्‍तेजक क्षेत्र है। उत्‍तेजित अवस्‍था में स्राव का होना, नाड़ी की गति तेज होना और जोर-जोर से दिल धड़कना आदि स्‍त्री की रति भावना के सूचक होते हैा
 यौन आनंद की इच्‍छा का अर्थ ही है कि स्‍त्री को भी अपनी शक्ति का ह्रास करना होगा। केवल पुरुष पर ही यह बात लागू नहीं होती। यद्यपि स्‍त्री में ग्रहण करने की प्रवृत्ति है किंतु जब वह यौन भूख व्‍यक्‍त करती है तब उसकी सक्रियता दिखाई पड़ती है। उसके मस्तिष्‍क और पेशियों में तनाव आ जाता है। उदासीन व भावना शून्‍य स्त्रियां हमेशा ठंडी रहती हैं। स्‍त्री की काम क्षमता कुछ मानसिक तत्‍वों द्वारा ही निर्धारित होती है किंतु इसमें संदेह नहीं कि शारीरिक बनावट और कमी के साथ ही शक्ति की न्‍यूनता भी स्‍त्री को रति क्रिया में उदासीन रखती है।


प्रेम विह्वलता+उत्‍तेजना = कामुकता
स्‍त्री को खेलकूद में शक्ति नष्‍ट कर देने से रति संतुष्टि नहीं मिलती। स्‍कैण्‍डीनेविया की स्त्रियां स्‍वस्‍थ व शक्तिशाली होने पर भी 'ठंडी' होती हैं। उनमें काम भावना की उत्‍तेजना नहीं होती। वास्‍तव में कामोत्‍तेजित होने वाली स्त्रियां वे हैं जिनमें प्रेम विह्वलता के साथ उत्‍तेजना भी रहती है जैसी कि इटली और स्‍पेन की स्त्रियां। इनकी शक्ति केवल शरीर द्वारा ही व्‍यय होती है।

उत्‍तेजना कम होने पर भी सेक्‍स इच्‍छा रहती है जीवित
प्रेम करती हुई स्‍त्री न तो निद्रा में रहती है और न मृत। उसमें एक तूफान उठता है जो घटता-बढ़ता रहता है। इस तूफान  का घटाव उसे मानो मंत्र-मुग्‍ध रखता है और यही उसकी रति इच्‍छा को जीवित भी रखता है।
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स्‍त्री की पसंद, चेष्‍टारहित संभोग आसन
स्‍त्री की ऐसी कोई भी चेष्‍टा नहीं होती जो उसे समर्पण न करने दे। इसीलिए वह संभोग के उन आसनों को पसंद करती है जिनमें उसे चेष्‍टा नहीं करनी पड़ती है, जिनसे उसमें तनाव नहीं आता है। आसनों में हठात परिवर्तन या शब्‍दों का व्‍यवहार स्‍त्री की मंत्र-मुग्‍ध अवस्‍था को भंग कर देते हैं।

अधिक कामुक स्‍त्री हो जाती है चिड़चिड़ी
अत्‍यधिक कामुकता स्‍त्री में चिड़चिड़ापन, खिंचाव और तनाव पैदा करती हैं। कुछ स्त्रियां अतिरेक में पुरुषों को नोंच खसोट लेती हैं। वे मानो किसी अस्‍वाभाविक शक्ति द्वारा अपने शरीर को कठोर और कड़ा कर लेती हैं किंतु यह स्थिति विशेष आवेश की स्थिति होती है। संभोग की स्थिति में किसी प्रकार का शारीरिक व नैतिक दुराव नहीं रहता। पूरी शक्ति केवल रति-क्रीड़ा में लगा दी जाती है।

निष्‍कर्ष
इसका तात्‍पर्य यह है कि संभोग के समय यदि स्‍त्री का मन दूसरी तरफ हो और वह चुपचाप समर्पण कर दे तो तृप्ति न तो उसे होती है और न उसके साथी को। एक ऐसे साहसिक कार्य में उसे सक्रिय रूप से भाग लेना पड़ता है, जिसकी इच्‍छा उसे कुंवारी अवस्‍था में नहीं रहती, क्‍योंकि ऐसी इच्‍छा के प्रति समाज द्वारा अनेक निषेध, बंधन और दंड निर्धारित हैं।

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