Monday 12 November 2012

काम से लड़ो मत - जागो और समझो

मैं काम वासना को उठते हुए देखती हूँ और शरीर और मन पर इसके प्रभाव को भी देखती हूँ। मन को दो भागों में बँटा हुआ देखती हूँ। एक मन कहता है कि जो हो रहा है वह ग़लत है। तब श्वासों को गहरा करने की कोशिश करती हूँ। ऐसा करने से मन में उठ रहा काम वेग कुछ हद तक कंट्रोल में होता है। लेकिन फिर मन दूसरे ही रूप में कुछ और आकर्षण क्रिएट करता है। कई बार मैं मन के बुरे विचारों में इस कदर बह जाती हूँ कि संभलना मुश्किल हो जाता है। चले थे इश्क की राह पर जल कर फ़ना होने को, लेकिन वासना की आग में जलते जलते मंज़िल को आँखों से ओझल होते हुए देख रही हूँ।ज्ञान सुनते रहने से आपके पास एक अच्छी शब्दावली आ जाती है। आप कुछ अच्छे और सुंदर शब्दों के बारे में परिचित हो जाते हैं। ‘मन को देखना, शरीर को देखना, श्वासों को देखना’; बड़े उँचे शब्द हैं, छोटे नहीं।
मन को देखने की ताक़त या क्षमता रखते हैं अगर तो मन के बहाव में बह नहीं सकते थे। पर अगर आप मन के बहाव में बह जाते हैं तो इसका मतलब है कि आपको अपने मन के साक्षी होकर मन से अलग अपने आप को देखना नहीं आता। पहले इस सच्चाई को स्वीकार कर लो। ऐसा नहीं होता कि तुम कहो कि, ‘मैं गड्ढा देख भी रहा हूँ पर फिर भी गिर रहा हूँ’। आप गड्ढा देखते हुए किनारे से निकल जाते हैं क्योंकि गड्ढा देख कर कोई उसमें गिरता नहीं है। अगर कोई यह कहे कि ‘मैं गड्ढे को देख रहा हूँ’, ‘मैने देख लिया है’ , फिर वो उसमें गिर जाए तो मतलब सिर्फ़ इतना है कि या तो वह अँधा है, या सपनों की दुनिया में जीता है, जिसमें उसे यह सपना आया कि उसने गड्ढे को देख लिया। इसलिए जगते हुए में जब वह चला तो गिरा।
तुम कहती हो कि ‘ मन में जब काम वेग जगता है तो मैं यह बात जानती हूँ कि यह बुरी चीज़ है। मुझे यह सोचना ही नहीं चाहिए। मुझे यह महसूस भी नहीं करना चाहिए। ‘ पर कुछ थोड़ा और समझने की ज़रूरत है।
भूख, प्यास यह शरीर की ज़रूरत है। आपको भूख लगे तो आप कभी नहीं कहते कि ‘मैं बड़ा बुरा काम कर रहा हूँ। ‘ आपको प्यास लगे तो आप कभी नहीं कहते कि ‘मैं बुरी बात बोल रहा हूँ। क्योंकि मुझे प्यास लग रही है।’ भूख लगती है तो रोटी खा लेते हो, प्यास लगती है पानी पी लेते हो। पर जैसे प्यास लगने पर पानी न पीकर शराब पीने लग जाए तब यह ग़लत हो जाएगा। भूख लगने पर दाल, रोटी, सब्ज़ी खा लेना प्राकृतिक है। यह शरीर की ज़रूरत थी जो आपने पूरी कर दी। भूख तो लगी है पर आप चार दिन पुराना किसी की शादी वाले घर से आए हुए हलवाई द्वारा बने हुए स्वादिष्ट पुराने समान को लपलप खा गये तो इसे हम कहेंगे कि यह खराब है।
खाना खराब नहीं था। पर क्या खाओगे उससे यह अंतर पड़ता है कि वह चीज़ ठीक है या ग़लत है। प्यास लगने पर यह नहीं कहते कि ग़लत कर रहा हूँ,’ भूख लगने पर नहीं सोचते हो कि ‘मैं कुछ ग़लत कर रहा हूँ। ‘ आज तक किसी को कोई ग्लानि नहीं हुई कि ‘मुझे रोज़ भूख लग जाती है’, ‘सुबह भूख लगी थी, अब दोपहर को भी लग गई और रात को भी लग गई।’ तुम कभी अपने आप को बुरा नहीं समझते हो जब तुम्हें प्यास लगती है।

जैसे भूख और प्यास शरीर की प्राकृतिक ज़रूरत है, इसी तरह से सेक्स भी शरीर की ज़रूरत है। तो इसके लिए तुम अपने को ग़लत क्यों ठहराते हो? यह भी ज़रूरत का एक हिस्सा है। यह ज़रूरत भी आपको प्रकृति ने दी है। किसी ने भी यह ज़रूरत अपने आप खड़ी नहीं की। यह प्रकृति का सिस्टम है। कली बनती है, कली फूल बनती है। उस बीज से फिर और नयी कलियाँ खिलती हैं, फिर और नये फूल खिलते हैं। तो इसमें बुरा क्या है?
वैसे अगर देखा जाए तो शादी क्या है? समाज की ओर से एक स्त्री और एक पुरुष को लाइसेंस मिल रहा है कि आज से तुम दोनों साथ-साथ रहो, और आज के बाद तुम्हारे शरीर को जब उसकी ज़रूरत हो तो तुम्हारे आपसी काम व्यवहार को ग़लत नहीं समझा जाएगा। सच बात तो यही है। आज भी भारत में अगर कोई बिना शादी किए दैहिक संबंध बनाए तो उसे चरित्र हीन कहते हैं। जो स्त्री या पुरुष एक से अधिक पुरुष या स्त्रियों के साथ संबंध रखे, उसे समाज में चरित्र हीन कहा जाता है। इसलिए समाज ने एक सिस्टम बनाया - विवाह। जिसमें आपको बड़े बुज़ुर्गों का आशीर्वाद मिलता है, शुभकामनाएँ मिलती हैं। तो यह आपको एक लाइसेंस मिल रहा है कि आज के बाद इस आदमी के साथ रह सकते हो। एक दूसरे को स्पोर्ट करोगे, एक साथ जीवन बिताओगे और समय आने पर संतान उत्पन्न करोगे। यह प्रकृति का सिस्टम हैं और इसी प्रकृति ने समाज में एक परिवार की रूपरेखा दे दी।

पशुओं में ऐसा पारिवारिक सिस्टम नहीं होता। पशुओं में सिर्फ़ नर और मादा होते हैं। इनमें अगर शारीरिक संबंध बने तो जानवरों की दुनिया में इसे ग़लत नहीं कहा जाता क्योंकि जानवरों में शादी नहीं होती। इनमें सिर्फ़ दैहिक संबंध बनता है। बस और कुछ नहीं। लेकिन मनुष्यों में संबंध बनाने से पूर्व समाज की व्यवस्था के साथ उसे चलाया जाता है।
जो चीज़ प्राकृतिक है आप उसको ग़लत कैसे कह सकते हो? और जैसे तुम्हें भूख लगे और तुम किसी का खाना छीन कर खा जाओ तो यह ग़लत होगा। पर आपने अपनी भूख को दूर करने के लिए मेहनत की, पैसा कमाया, फिर इस पैसे से अपना खाना जुटाया तो इसको कोई ग़लत नहीं कहेगा।
तो ग़लत और सही की व्याख्या को भी समझना चाहिए। लेकिन कुछ एक बातें ऐसी हैं जो समाज और परिवार के बीच में आ जातीं हैं।
लेकिन अपने आप में ‘काम की इच्छा ग़लत है’, यह सोच ग़लत है। किसने कहा कि काम बुरा है? अगर काम बुरा है तो तुम्हारे माँ-बाप बुरे हैं जिन्होने तुम्हें पैदा किया है, इस बुराई से। फिर तुम्हारे दादा-दादी बुरे हैं। तुम्हारा वंश ही बुरा है। फिर तो पूरी मनुष्य जाति ही बुरी हो जाएगी। हिन्दुस्तान के महात्मा और ऋषियों ने काम-व्यवहार और काम वासना को इतनी गहराई से समझा और इसको इतना सम्मान दिया, इतनी शुद्धता प्रदान की है कि विवाह के समय किसी ऋषि की उपस्थिति या आशीर्वाद को हमेशा मंगलकारी समझा गया।

पहली बात तो यह है कि इसको बुरा कहना या ग़लत कहना और ऊपर से तुम लिखती हो कि ‘हम इसको कंट्रोल करते हैं’ , आप जितना कंट्रोल करेंगे, आप उतने ही रुग्ण और बीमार हो जाएँगे। यह तो ऐसे ही है जैसे किसी को छींक आ जाए और उसको ज़बरदस्ती रोक ले तो कैसी शकल बनेगी उसकी? इसी तरह से जो लोग अपनी काम की इच्छा को ज़बरदस्ती दबाते हैं, उनकी शकलें अजीब सी, बुझी हुई, उदास और लड़ने को तैयार दिखाई देती है।
इससे पहले कि तुम काम की निंदा करो, काम को समझो कि काम है क्या। यह प्रकृति का बनाया हुआ एक सिस्टम है। 12 या 13 साल की उम्र में आते आते ऐसे हॉर्मोन्स आते हैं लड़के और लड़की के शरीर में स्राव होता है जिसके कारण मन और शरीर में यहभूख जगेगी, इससे पहले नहीं। इससे छोटी उम्र के बच्चे-बच्चियों को तो इस बात का पता ही नहीं होता।

आज सिनेमा और टी वी के कारण बच्चों को बहुत सी बातों की जानकारी हो गयी है - यह एक अलग बात है। लेकिन उनके शरीर में ऐसे कोई परिवर्तन नहीं आताहै। लेकिन मन के ऊपर मीडिया द्वारा जो समय के पहले शरीर और सेक्स के बारे में जो ज्ञान आज बच्चों के पास आ गया है तो उनकी प्यूबर्टी की स्टेज जल्दी आ गयी है। पहले लड़की को माहवारी 13 या 14 साल में होती थी। लेकिन आज वही 10 साल में हो रही है। ऐसा क्यों हो रहा है, इसके बहुत से कारण हैं। उनमें एक कारण यह भी है कि दिमाग़ जल्दी बड़ा हो जाता है। आज बच्चे, बच्चे रहते ही कहाँ हैं?
छोटे-छोटे बच्चे सोचते हैं कि ‘मैं स्टार बन जाऊँ’ , ‘मैं सिंगर बन जाऊँ’ - ऐसे विचार बच्चों में आने शुरु हो जाते हैं। जिस बच्चे को कन्चों से खेलना और पतंगें उड़ाना और काग़ज़ की नाव बनाकर खेलना चाहिए था, वह सिनेमा, टी वी के प्रभाव से उम्र से पहले ही जवान होने लग जाते हैं। चूँकि उनका दिमाग़ जल्दी जवान हो गया, इसी कारण शरीर में भी परिवर्तन जल्दी आने लगता है।
एक आदमी यह समझता है कि काम-व्यवहार से सुख मिलता है, प्रजनन होता है, समाज और प्रकृति का सिस्टम है, तो इसमें भी कुछ ग़लत नहीं है।

दूसरी बात - कुछ लोग काम व्यवहार में जाते हैं और यह नहीं समझते कि इसमें अल्टीमेट आनंद मिलने वाला नहीं है। यह क्षणिक सुख है, कुछ काल का है, कुछ देर का है और उसके बाद उससे कुछ प्राप्ति नहीं होती। सिर्फ़ रिलीस होता है, और कुछ नहीं। तो प्राप्ति क्या हुई?
हमारी देह में महत्वपूर्ण चीज़ न हड्डियाँ हैं, न माँस, न दिल, न दिमाग़ न खून। हमारे शरीर में सबसे कीमती चीज़ है - ऊर्जा। जितनी बार कोई भी स्त्री या पुरुष काम-व्यवहार में जाते हैं और जब-जब उनका वीर्य और रज स्खलित होता है, तब तब वह सिर्फ़ अपना वीर्य ही नहीं खोते हैं, अपनी ऊर्जा को भी खोते हैं।
ऊर्जा के गिरते हुए स्तर के कारण आपके दिल, दिमाग़ और शरीर में उसके प्रभाव आते हैं और उसका सबसे बड़ा प्रभाव यह देखा गया कि जिन्होने अपनी अध्यात्मिक यात्रा करनी थी, वह अपने आप को शारीरिक स्तर पर ऊर्जा-विहीन पाते हैं। क्योंकि काम-व्यवहार एक्साइटमेंट देता है।
अब एक्साइटमेंट क्या है? विज्ञान कहता है कि एनडॉर्फिन नाम का एक रसायन शरीर में दिमाग़ और ग्रंथियों के द्वारा रिलीस होता है। इस एनडॉर्फिन-केमिकल के कारण हमें खुशी मिलती है। अब अगर आप एनडॉर्फिन को बिना सेक्स के रिलीस करना सीख जाएँ, तो आपको वही मज़ा आएगा जो किसी को सेक्स में आता है। एनडॉर्फिन रिलीस कैसे हो सकता है? नृत्य में होता है। प्राणायाम में भी हो सकता है। खुलकर गाने में भी यह संभव हो सकता है।

इसीलिए जो बहुत ज़्यादा किसी ललित कला में या किसी सृजनात्मक कार्य में चले जाएँ, जैसे डांस, म्यूज़िक, पेंटिंग; ऐसे लोगों को दुनिया से कोई मतलब नहीं है। वे अपनी कला से ही इतने आनंदित और तृप्त हैं कि उनको दैहिक या मानसिक तृप्ति के लिए काम-सुख की ज़रूरत नहीं रह जाती। पर शर्त यह है कि बहुत ईमानदारी से इसमें लगो। जो मज़ा किसी को शारीरिक सुख से मिलना था, वे अपने संगीत से ले लेते हैं, नृत्य से ले लेते हैं, एक मूर्ति बनाकर ले लेता है, हँस कर ले लेता है, कीर्तन करके ले लेता है।
पहली बात, दैहिक आकर्षण स्वाभाविक है। इसलिए इसको बुरा न कहिए। जिस चीज़ को आप बुरा कहेंगे, उसको तुम अपने पास से छुपाओगे। इससे तुम अपने आप को उतना ही मुश्किल हालत में डालोगे। चमड़ी पर फोड़ा हो जाए और तुम उसे कपड़े से ढक दो ताकि वह दिखाई न पड़े तो फोड़ा नासूर बन जाएगा। कीड़े बन जाएँगे। उसे खोल कर रखो, दवा लगाओ, हवा लगने दो, ठीक हो जाएगा।
पहली बात, सेक्स को फोड़ा मत समझिए, जिसे छिपाना है। यह नैसर्गिक प्रक्रिया है। इसलिए इससे लड़ो मत। दूसरी बात, तुम शरीर से जवान हो। जवान शरीर में अगर काम की इच्छा नहीं जगेगी तो क्या बच्चे में जगेगी या बूढ़े में जगेगी? तीसरी बात - आपको अगर लगता है कि इसे दबाने से आप ख़त्म कर देंगे तो यह ख़त्म नहीं होगी। जो इसको दबाने की सोच रहा है, वह तो प्रकृति से लड़ रहा है। पर याद रहे, जब तुम प्रकृति से लड़ रहे हो तो प्रकृति जीतेगी, तुम नहीं। क्योंकि प्रकृति बहुत विशाल और शक्तिशाली है।
सेक्स क्या है, सेक्स से क्या मिलता है, काम से क्या नहीं मिलता है, इन सब बातों की समझ करो। संभावना है कि इसको समझते समझते अगर आपका दिमाग़ तरक्की कर गया और उसके साथ अगर कलाओं में तुम्हारी रूचि हो। क्योंकि कलाकार के पास फ़ुर्सत नहीं कि काम की भूख जगे। भूख उठना ग़लत नहीं है। पर यह तुमको देखना है कि इस भूख की तृप्ति करने पर तुम्हें क्या मिलेगा।
विवाहित जोड़े से पूछिए, उनके अनुभव लीजिए तो वे बताते हैं कि जब शादी की थी तो बड़े चाव से की थी। पहले दस-पंद्रह साल तो बहुत सुख रहा, अब सुख कैसा रहा? इस बात को समझिए कि वे क्या कह रहे हैं। खाना, पीना, कपड़े की बात वे नहीं कह रहे। नया, घर, मकान मिल गया इसकी बात वे नहीं कह रहे। वे सेक्स की बात कर रहे हैं। कहते कि पहले बहुत सुख रहा पर बच्चे होते ही, ज़िम्मेदारियाँ बढ़ते ही, शरीर की शक्ति भी कम होने लग जाती है। कह्ते कि अब मजबूरी हो गयी। अब मज़ा नहीं रह गया। फिर जो शादी-शुदा होने का चार्म है, वह ख़त्म हो जाता है। फिर यह होता है कि आप एक दूसरे के लिए उपस्थित हैं। तो पति को चाह उठे तो औरत है और औरत को चाह उठे तो पति है। जब तक हैं सो हैं।
तो पहले सेक्स एक्साइटमेंट देता है, फिर रूटीन हो जाता है। फिर औरत-मर्द में लड़ाई का कारण बन जाता है। काम शक्ति भी एक शक्ति की तरह है, जिसका आप सदुपयोग भी कर सकते हैं और दुरुपयोग भी कर सकते हैं। विवाह की संस्था इसीलिए बनाई गयी है। अगर एक कहता है कि ‘मुझे विवाह में नहीं जाना है’ तो मैं उससे पूछूंगी कि कम से कम दस कारण बता कि क्यों नहीं जाना चाहता।गुरु अच्छे लगते हैं’, ‘आश्रम अच्छे लगते है’, यह सब दिमाग़ की बातें है। शरीर की भूख दिमाग़ की बातों को नहीं समझती। तुम दिमाग़ से सोचते रहो कि ‘हम साधना करेंगे’ पर तुम्हारा शरीर कुछ माँग कर रहा है और अगर तुम उस माँग को नहीं सुनोगे ।।।।। इसीलिए देखो कभी, जो लोग अपनी काम इच्छा को दबाए रखते हैं, वे पर्मानेंट सड़े हुए होते हैं। जिसने अपनी काम इच्छा को समझ लिया है, उसके वेग को समझ लिया है, दिमाग़ से यह भी जान लिया है कि इससे मिलना क्या है और क्या नहीं मिलना है और पूरी होश और समझ के साथ काम व्यवहार में जाता है तो भी, और अगर नहीं जाने का निर्णय लेता है तो भी, उसके जीवन में सड़न नहीं आती है। उसके जीवन में एक प्रसन्नता बनी रहती है।

पर मैं कहना चाहूँगी कि अठानवे प्रतिशत लोगों को सेक्स की ज़रूरत है और उन्हे इस ज़रूरत को पूरा करना भी चाहिए और पूरा करते रहने में शायद अकल बढ़ जाए और यह समझ में आ जाए कि इसमे से निकलना कुछ नहीं है। लेकिन मैं यह नहीं कह रही कि काम बुरा है। गोबर बुरा नहीं है, गोबर की खाद भी हो सकती है। इसी खाद से फूल खिल सकते हैं।
इसी तरह काम एक उर्जा है, इस उर्जा को परिवर्तित करना सीखो। काम उर्जा अगर नीचे को बह गयी तो सेक्सुअल रिलीस होगा और अगर यही काम उर्जा को अगर अपने ध्यान के द्वारा बदल दिया तो वह तुम्हारे ध्यान को गहरा कर देगी। यह एक शक्ति है। इसे इस्तेमाल में कैसे लाया जाए; यह आप पर निर्भर करता है।

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